तलाश का परिचय

तलाश का परिचय

‘तलाश’ अपने समाज एवं परिवेश से असंतुष्टि की उपज है। इसे कभी मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी ‘भारत - भारती’ में इस रूप में अभिव्यक्ति दी थी -

“हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी।

आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी।।”

समाज के हर अंग से, हर वर्ग से लगातार विमर्श के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि क्या कुछ किया जा सकता है जिससे भविष्य में हम और हमारे वंशज विकास श्रृंखला में हमेशा अग्रणी रहें न कि हम विकाशील पिछलग्गू बने रहें।

प्रजातंत्र में आम आदमी ही केन्द्र है, वही उद्देश्य है, व्यवस्था का अंतिम उपभोक्ता है। अतः उसे ही सजग रहना होगा और तंत्र को सही रखना भी इसी की जिम्मेदारी है। आम आदमी के बिना हस्तक्षेप के सभी तंत्र सुस्त, नाकाम या कुछ ‘खास’ के स्वार्थपोषक हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में जब तक हर व्यक्ति गलत को गलत कहने का साहस नहीं करेगा, तंत्र अपनी सही स्थिति में नहीं रह सकता है। साथ ही अच्छा करने वाले को अच्छा कहना उतना ही मूल्यवान है, लोगों को सही दिशा में उत्प्रेरित करने के लिए।

ध्यान से देखें, तो अन्ततः सभी प्रगति के स्रोत और उद्देश्य, सभी ताकतों की ताकत सिर्फ अर्थव्यवस्था है। हमें लगातार समृद्ध होना है ताकि हमें उत्कृष्ट भोजन, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य एवं शिक्षा मिलती रहे। अतः तलाश हर व्यक्ति को उत्प्रेरित करता है कि एक रुपया आज और कमाएँ- वाजिब तरीके से। पूरे देश में लाखों व्यक्ति हैं, हजारों संस्थाएँ हैं जो समाज, पूरे राष्ट्र के लिए कुछ न कुछ अच्छा कर रहे हैं।

जबतक सभी ऐसी संस्थाएँ एक जुट होकर एक दिशा में निर्णायक कदम नहीं उठातीं; व्यापक / सार्थक परिवर्तन मुश्किल है।

इन कार्यो के साथ यह भी आवश्यक है कि हम स्वयं कहीं उलझ न जाएँ। अतः हमारे सारे कार्य अराजनैतिक एवं अहिंसात्मक होने चाहिए।

तलाश का लक्ष्य एवं उद्देश्

1. एक अराजनैतिक, अहिंसात्मक, वैचारिक अभियान है।

2.आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार हेतु सामाजिक जीवन के सभी आयामों के कार्य - कलापों में सुधार लाने का कार्य करेगा।

3. प्रत्येक नागरिक में ’सच को सच‘ एवं ’गलत को गलत‘ कहने की शक्ति पैदा करेगा।

4. प्रत्येक नागरिक को वाजिब तरीके से प्रतिदिन अपनी आय में वृद्धि करने हेतु प्रोत्साहित करेगा।

5. रचनात्मक सामूहिक सोच का निर्माण करने को कृतसंकल्प है।

6.संबंधित सक्षम अधिकारियों / व्यक्तियों को सही दिशा में कार्य करने हेतु प्रेरित करेगा।

7.किसी प्रकार की सीधी सेवा नहीं प्रदान करेगा।

8. पूरे भारत में आम व्यक्ति को पहरुए की तरह जागरूक करने का काम करेगा। यह किसी भी क्षेत्र / प्रकार की गलती दिख ने पर उसे अहिंसात्मक ढंग से ठीक करेगा।

9.सदस्य बनने हेतु कोई शुल्क नहीं होगा एवं इसके सदस्य अवैतनिक कार्यकत्र्ता के रूप में कार्य करेंगे।

10.इसका अपना कोई निधि / कोष नहीं होगा। संस्था के छोटे-मोटे खर्च सदस्यगण मिलकर वहन करेंगे।

11. इसका अन्य गैर सरकारी संगठन की तरह निबंधन नहीं होगा एवं इसमें कोई अध्यक्ष, सचिव अथवा कार्यकारिणी नहीं होगी।

तलाश - एक आन्दोलन

तलाश एक विचारधारा रूपी आंदोलन है जो धरातल पर ऐसे कार्य कर सके जिससे हमारा जीवन स्तर उच्चतर हो सके। यह सब सिर्फ कार्य करने से ही संभव है, न कि केवल विचारों के आदान - प्रदान से। लेकिन हर कार्य के पहले विचार उत्पन्नहोना, वैचारिक दृढ़ता होना आवश्यक है। तभी कुछ भी क्रियान्वित हो सकता है।

आज के संदर्भ में ऐसा लगता है कि हमारे समाज में कार्य करने की एजेंसियाँ (Agencies), सरकारी या गैर-सरकारी काफी हैं। परन्तु यथार्थ यही है कि आम आदमी बहुत परेशान है। इसका प्रमुख कारण, जो कार्य करनेवाले हैं उनमें उत्तरदायित्व के अंतःबोध (Internal Policing) की कमी एवं उनसे काम करवाने का बाह्य-दबाव (Internal Policing) दोनों का अभाव है। आंतरिक - उत्तरदायित्व की भावना यह समझने से उत्पन्नहो सकती है कि सामूहिक हित का काम जो उनकी व्यक्तिगत कठिनाई जैसा प्रतीत होता है ; वस्तुतः उनके लिए या उनके स्वयं” के लिए ही अत्यंत आवश्यक है। सामूहिक हित की बलि पर स्वयं का धनार्जन करना, चाहे वह कोई भी हों - इंजीनियर, चिकित्सक, प्रोपफेसर, वकील, व्यवसायी, उद्योगपति, अन्ततः उन्हें वह सब कुछ नहीं प्रदान कर सकता है जो सामूहिक जीवन स्तर उठने से उन्हें मिल सकता था; जैसे - अच्छी सड़कें, साफ मुहल्ले, रौशन गलियाँ, परवाह करनेवाले अधिकारी, चिकित्सक, व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एवं सम्मान। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि आप कितने भी बड़े अधिकारी हों, यदि गलियाँ गंदी हैं; तो मच्छर होंगे, और काटने से आपको या आपके परिवार को मलेरिया इत्यादि हो सकता है और मृत्यु भी हो सकती है।

कार्य होने का दूसरा कारण बाह्य दबाव (Internal Policing) की व्यवस्था सभी सरकारी एवं गैर-सरकारी तंत्रों में पहले से ही है,फिरभी वे उपरोक्त कारणों से ही अक्षम, निष्क्रिय हैं अथवा विपरीत दिशा में काम करते हैं। अतः यह दबाव उस व्यक्ति को उत्पन्नकरना पड़ेगा जो उसका उपभोक्ता (आम आदमी) है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में वही मालिक है। अतः Policing का कार्य या दायित्व भी अन्ततः उसी का है। इसके लिए उसकी भी समझ व्यक्तिपरक होने के साथ - साथ समाजपरक होनी आवश्यक है। किसी भी कार्य - प्रणाली के कार्य करने में आम व्यक्ति ही वह तत्त्व हो सकता है जो अंततः सभी निकायों की जंग या जकड़न छुड़ाकर फिर से उन्हें दिशाओं में चलायमान कर सकता है। अतः हर ऐसे व्यक्ति का वैचारिक परिवर्तन एवं उसमें आवश्यक वैचारिक दृढ़ता उत्पन्नकरना आवश्यक है।

विश्लेषण से ऐसा लगता है कि समाज, राज्य / देश, की दुर्दशा या अवांछनीय दुर्गति समर्थ लोगों / बुद्धिजीवी / अधिकार संपन्न के द्वारा ही स्वार्थ - पोषण के कारण हुई है। परन्तु , यह भी सत्य प्रतीत होता है कि यही वह वर्ग है जो अच्छा परिवर्तन करने में सक्षम है। सामाजिक गिरावट से इस वर्ग को व्यक्तिगत, सामाजिक परेशानी भी कहीं ज्यादा है। अच्छी और सही दिशा में समाज के चलने से पुनः सबसे ज्यादा लाभ भी इसी को होगा। अतः इस वर्ग का खास दायित्व है कि समाज का दिशा निर्देशन करने के लिए संकल्पबध हो। भारत जैसे अध्यात्म या धर्म प्रधान देश में जहाँ थोड़े से संतोष करना आर्ष - वाक्य के रूप में प्रचलित है, वहाँ भौतिक उत्थान की बात करना, भौतिक रूप से जीवन-स्तर बढ़ाने को कहना कहाँ तक उचित है? यह बात आसानी से लोगों की समझ में नहीं आती है।

परन्तु वैज्ञानिक रूप से यदि विश्लेषण किया जाय तो यह समझ में आता है कि महान वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन का Survival of the fittest सिद्धांतनिर्विवाद रूप से लागू होता रहा है; और यह शायद अंतिम प्राकृतिक सत्य है। यदि हमलोगों ने अपनी आर्थिक क्षमता, भौतिक क्षमता, तकनीकी क्षमता, पौष्टिक भोजन (Nutrition) और सार्वभौम सुरक्षा की अनवरत व्यवस्था नहीं की तो अगले कुछ ही सौ सालों में हम दूसरे स्तर के प्राणी रह जाएँगे और कुछ लोग जो ज्यादा सक्षम होंगे हमारे साथ वही व्यवहार करेंगे जो आज हम दूसरे स्तर के प्राणियों के साथ कर रहे हैं। यह वैज्ञानिक गल्प नहीं वरन् वैज्ञानिक हकीकत है। अतः सभी विचारवान देशवासियों को एकजुट होकर इस स्थिति से उबरना होगा।

राष्ट्रपति लिंकन से पूर्व एक मानव दूसरे मानव का गुलाम हुआ करता था। गुलामी का मोल एक गुलाम क्या चुकाता था? वह सब कुछ जो उसके पास था। अर्थात् बहुत ही कम मूल्य के लिए उसके हाथ / पैर / सारी शारीरिक शक्ति (उसका एकमात्रा आर्थिक वजूद ) का उपयोग उसके स्वामियों के लिए होता था। उसके कुछ समय बाद इस आर्थिक शोषण का स्वरूप बदल कर उपनिवेशवाद के रूप में ज्यादा वृहत् एवं सामूहिक स्तर पर होने लगा - एक पूरा समाज एक दूसरे पूरे समाज का गुलाम हो गया।

आज के समय में इस आर्थिक शोषण का स्वरूप तकनीकी श्रेष्ठता (Superiority) के रूप में परिलक्षित है, जिसका उपयोग उपभोक्ता सामग्री से लेकर देश की सुरक्षा संबंधी उत्पादों द्वारा किया जा रहा है। देशों की सीमा के अन्दर या उसकी सीमा से परे भी यह तकनीकी शोषण जारी है एवं समयानुसार यह उग्रतर होता जाएगा। अतः हमें इस प्रकार के शोषण से मुक्त होना होगा क्योंकि वह प्रथम स्तर के गुलामी का ही दूसरा स्वरूप है।

उदाहरणार्थ

एक MRI Machine ( एक चिकित्सा उपकरण ) या Su-.30 सुरक्षा उपकरण का वास्तविक मूल्य यदि उत्पादक देश का Y मानव कार्य - दिवस है, तो उसका मूल्य हम या खरीदार देश 1000 Y मानव कार्य - दिवस के रूप में चुकाते हैं। अर्थात् उत्पादक देश के एक व्यक्ति के कार्य करने के बदले हमारे 1000 व्यक्तियों को काम करना पड़ता है। यह प्रथम स्तर की गुलामी से किस प्रकार भिन्न है? हम स्वयं ऐसी सारी चीजें उत्पन्न करके अपनी और अन्य लोगों की सेवा क्यों नहीं कर सकते

इन सब मुद्दों को ध्यान में रखते हुए अक्सर यह मूल प्रश्न उठ खड़ा होता है, कि हमें करना क्या है? या कि “तलाश” क्या करना चाहता है? निश्चित रूप से यह कोई ‘दायी’ संस्था नहीं है जो कंबल बाँटने, मुफ्त शिक्षा या चिकित्सा देने जैसा कोई कार्य करना चाहता है। इसकी यह स्पष्ट धारणा है कि यह मर्ज का समुचित इलाज नहीं है। कई बार ऐसा प्रयास बीमारी को बढ़ानेवाला सिद्ध होता है। हमें ‘मिल जाता है’ की मानसिकता से निकल कर ‘मैं अर्जित कर सकता हूँ / मुझे अर्जित करना ही पड़ेगा’ की मानसिकता तक पहुँचने की आवश्यकता है। अतः यह सभी संबंधित लोगों में ऐसी मानसिक दृढ़ता और सोच पैदा करना चाहती है कि उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा और प्रगति / उपलब्धि / अस्तित्व रक्षा के लिए जो आवश्यक है वैसे सभी कार्य स्वार्थोन्मुख होते हुए भी सामूहिक हित के विपरीत नहीं हों। लोग यह सुनिश्चित करें कि जो उन्हें ‘देय’ है वह उन्हें अवश्य एवं पूरी तरह से मिले। इस सत्य को पुनः समझना होगा कि यह सिर्फ सेवाओं का उपभोक्ता या प्रजातंत्रा का मालिक - आम व्यक्ति ही कर सकता है, क्योंकि ‘दायी’ संस्थाएँ गोलबंद होकर इसे नकारती हैं और इससे सम्पूर्ण समाज का पतन होता है।

इस प्रकार, तलाश का काम Nuclear Fission जैसा वैचारिक परिवर्तन है जिससे हमारे जीवन के सभी आयामों से संबंधित सारे कार्य ठीक दिशा में उन्मुख हो सकें। ऐसा होने से एक व्यक्ति अपने कार्य पर समयानुसार घर से निकलेगा, उसे जाने के लिए समयानुसार Public Transport मिलेगा, लोग लाइन में सुविधाओं का उपयोग कर सकेंगे, गलत करनेवालों का अहिंसात्मक विरोध होगा, टूटी सड़कें, बहते पानी की सूचना संबंधित विभाग को समय पर मिलेगी एवं उस पर तुरत कार्रवाई होगी। अस्पताल, विद्यालय, प्रशासन, कार्य करने लगेंगे। खाली समय में लोग अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाने के लिए अपनी आमदनी बढ़ाने का उपाय सोचेंगे - उसे कार्य रूप में परिणत करेंगे। इतनी तेजी से यह प्रयास करना होगा कि जिससे हम आज के युग की तकनीकी गुलामी से अपने समाज को मुक्त कर सकें एवं अपना जीवन उच्चतर कर सकें ताकि जैविक नियमों के अनुसार हमारा उत्थान भी सामूहिक रूप से कल के अतिमानव (Super Human) के रूप में हो सके।

एक मूर्त कार्यक्रम के रूप में तलाश ने निम्नांकित संकल्प लिया हैः-

1.हम गलत को गलत कहने का साहस करें।

2.अच्छे को अच्छा कहें।

3.हम अपनी आमदनी वाजिब तरीके से प्रतिदिन बढ़ाएँ।

4.रचनात्मक सामूहिक सोच का निर्माण करें

5.ऐसे सभी कार्य अराजनैतिक एवं अहिंसात्मक हों।

तलाश का वैज्ञानिक आधार

अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं मानव जीवन को प्रभावित करनेवाले धार्मिक संगठनों एवं धर्मगुरुओं के संपूर्ण विरोध के बावजूद चार्ल्स डारविन का सिद्धांत प्रकृति के गूढ़तम रहस्य के उद्घाटन के रूप में सर्वमान्य रूप से स्थापित हो चुका है। मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जो उल्टे लकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं। गैलेलियो, न्यूटन, आईंस्टाईन के सिद्धांतों में संशोधन, परिवर्तन का मतलब उसका गलत होना नहीं है। वे हमेशा ही विज्ञान की सीढ़ियाँ और स्थायी प्रकाश स्तंभ की भाँति हैं जिनसे विज्ञान का पथ आलोकित हुआ है और हम आगे बढ़े हैं। आगे बढ़ चुकने पर पिछले रास्ते गलत कैसे हो सकते हैं?

भौतिकी की स्थापना के पूर्व चेतना की अवस्था हमारे इंद्रिय ग्राह्य तो नहीं ही हैं अभी तक बुद्धि ग्राह्य भी नहीं हैंऋ प्रमाण तो दूर है। अतः हम भौतिक परिस्थिति से यदि निरूपण करें तो पाएँगे कि विभिन्न ‘भौतिक ऊर्जा’ ने ‘रसायन’ को जन्म दिया एवं रसायन ने जीवन को। रसायन एवं जीवन के मिलन बिन्दु से आगे एककोशीय जीवन, बहुकोशीय, वनस्पति जीवन फिर प्राणी जगत का उद्गम हुआ।

नृविज्ञान के तथाकथित क्ंजं को छोड़कर हम तथ्यात्मक बिन्दुओं की ओर ध्यान दें:

1. प्राणी जगत की एक मुख्य विशेषता स्थान परिवर्त्तन (Locomotion) रही है। आज से कुछ समय पूर्व ( लाखों वर्ष ) इसके लिए कुछ प्राणी चार पैरों का इस्तेमाल करते थे। इन चौपायों में कुछ ने इस गतिशीलता के लिए सिपर्फ दो पैरों के इस्तेमाल की बात सोची और विभिन्न स्वरूपों - गोरिल्लों, चिंपाजी, बंदर इत्यादि सीढ़ियाँ पार करते हुए आधुनिक मानव (Homosapian) के रूप में विकसित हुए।

2.इस पृथ्वी पर आज मानव समूह विकसित, विकासशील एवं अविकसित समुदायों में विभक्त हो चुका है। आज एक विकसित, एक अविकसित को उत्सुकता की दृष्टि से देखता है एवं उसकी सुरक्षा एवं संरक्षा के लिए कुछ उसी भाव से आगे आ रहा है जिस भाव से हम विलुप्त हो रहे प्रजातियों यथा - बाघ, पंडा इत्यादि की सुरक्षा करना चाहते हैं।

3.पिछले कुछ हजार सालों में ( जबसे मानव इतिहास की मुकम्मल जानकारी है ) यदि विभिन्न मानव समुदाय में इतना अंतर आ गया है, जबकि विकास दर धीमी मानी जा सकती है तो अगले दस हजार सालों में क्या होगा ( जब विकास अत्यंत तेज एवं त्वरित गति से हो रहा है )? क्या मानव जाति पूरी तरह अलग प्रजाति ( या प्रजातियों ) में विभक्त नहीं हो जाएगी? क्या कुछ लोग अतिमानव (Supersapian) नहीं हो जाएंगे; जबकि कुछ लोग मानव ही रह जाएँगे।

क्या आप चाहेंगे कि आपके बच्चे Homosapian रह जाएँ और कुछ दूसरे अति मानव हो जाएँ ? और जैसे सभी जीव आज की मानव जाति के लिए किसी न किसी रूप में खुराक हैं तो आपका Progency भी Supersapian के लिए इसी रूप में शामिल हो जाए? नहीं! कदापि नहीं।

यही विचार तलाश के उद्गगम का मुख्य कारण है। ये बातें मैंने तलाश (2002) की शुरूआती बैठकों में लोगों से कही। एक मेडिकल जर्नल के संपादक के रूप में भी सन् 2002 में ये बातें मैंने लिखी थी। अबतक आप सुनते रहे हैं और इसे गप मानकर हँसते हुए अपनी राह चलते रहे हैं क्योंकि यह विचार Made in India है।

परन्तु ध्यान दें - ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के दिनांक 27 अक्टूबर 2007 का प्रथम समाचार ( एवं ‘द हिन्दू’ का भी प्रमुख समाचार ) जिसमें लिखा है कि ब्रिटेन के कुछ वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि अगले एक लाख वर्ष में मानव जाति दो भिन्न प्रजातियों ( एक बहुत बड़ा आनुवांशिक अंतर )में विभक्त हो जाएगा, ऊपर निरूपित किया जा चुका है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के मिo ओलिवर करी के अनुसार सिर्फ 1000 साल में मनुष्य 6 से 7 पफीट लंबा एवं 120 वर्ष आयु वाला हो जाएगा ( निश्चित रूप से सभी समुदाय ऐसा नहीं हो पाएँगे )। और सिपर्फ 10,000 सालों में आनुवांशिक विज्ञान के हेर - फेर एवं तकनीकी विकास के चलते मानव जाति में अप्रत्याशित परिवर्त्तन हो जाएँगे।

अब तो ये बातें जो मैं कह रहा था या कह रहा हूँ वह Made in England हो गया। दुनिया के तमाम अखबारों में आ चुका है। अब तो विश्वास करेंगे! अब तो जागें! अब तो कोशिश शुरू करें कि हम Supersapian में शामिल हों न कि Homosapian रह जाएँ।

इसके लिए ‘करना क्या है’ से पहले हमें समझना होगा कि ऐसा होगा क्यों और कैसे? इसका मेकेनिज्म क्या होगा; इस बात का विश्लेषण जरूरी है, तभी हम निदान खोज पाएँगे और करना क्या है यह भी समझ पाएँगे। यह भी समझ पाएँगे कि ‘तलाश’ अभियान से इसका सीधा संबंध कैसे है।

हमें जानना होगा कि ‘भौतिकी’ से ‘रसायन’ एवं ‘रसायन’ से ‘जीव’ की यात्रा के बीच एवं जीवों के बीच वायरस, बैक्टिरिया, एककोशीय वनस्पति, Plankton एककोशीय प्राणी अमीबा एवं बहुकोशीय व्हेल, चेतन मनुष्य और मांसाहारी पौधों, विशालकाय वटवृक्षों के विकास यात्रा में समानता क्या है?

जीवन की जिजीविषा, इसके लिए उसकी आवश्यकता एवं उपलब्ध वातावरण ( संसाधन ) ही मुख्य बिन्दु है। विकास ‘आवश्यकता’ एवं ‘उपलब्धता’ पर आधारित है। इसीलिए इतनी भिन्नता है। यही नियामक है विकास का, परिवर्त्तन का।

4.चौपायों से दोपायों की यात्रा के बीच के कुछ लोग आज भी गुरिल्ले, चिपांजी या बंदर की अवस्था में कैसे रह गए? वे आजतक लगभग वैसे ही Progeny क्यों उत्पन्न करते रह गए, जबकि कुछ लोग इतने भिन्न हो गए?

संतुष्टि

क्योंकि विकास की आवश्यकता को वह महसूस नहीं कर पाए और उनका संतुष्ट अंतर्मन रुक गया। वही ( They stopped to feel that they should improve. )

कैसे?

चाहत से आनुवांशिक परिवर्त्तन का क्या संबंध है। इसका क्या मेकेनिज्म है। हर कोई तो बेहतर होना चाहता ही है। मेरे पास प्रमाण नहीं है। उदाहरण है। उदाहरण के रूप में प्रमाण है।

किसी घटना को सुनकर हमें रोमांच हो जाता है। सुनना मानसिक प्रक्रिया है। रोंगटों का खड़ा हो जाना शारीरिक परिवर्त्तन। विपरीत सेक्स की कल्पना मात्रा कई शारीरिक क्रियाएँ उत्पन्न करने में सक्षम हैं। ऑर्गेज्म की अनुभूति शरीर के कण - कण की अनुभूति कैसे होती है ? अत्यंत बुरी खबर से हृदय की धड़कन क्यों रुक सकती है? आँसू क्यों निकल सकते हैं?

निष्कर्ष - ‘विचार’ काफी असरदार ढंग से हमारी शारीरिक प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है। बराबर करता रहता है। बेहतरी की इच्छा ‘प्रगति’ की पहली जरूरत है। दूसरा किस्सा लें। एक ही प्रजाति के दो समूहों में फर्क क्यों?

एक ही प्रजाति का पौधा कोई ज्यादा लाल कोई फीका लाल फूल कैसे उत्पन्न करता है?

एक ही प्रजाति की गाय ज्यादा दूध क्यों देती है?

क्या एशियन एवं अफ़्रीकी हाथी अलग - अलग ढंग से विकसित हुए?

कोई ज्यादा लंबा, कोई मोटा, कोई काला कैसे हो गया? परिवर्त्तनों की फेहरिस्त अत्यंत लंबी हो सकती है - यदि भेड़ों, बकरियों, सूअरों आदि को शामिल करें।

लगातार या काफी समय के अन्तर से ये परिवर्त्तन आनुवांशिक हो गए और ऐसे कई आनुवांशिक परिवर्त्तन यदि महत्त्वपूर्ण हो गये तो प्रजाति बदल गई। यह ‘चीजों’ की उपलब्धता, बेहतर होने की इच्छा की सचेतन प्रक्रिया के द्वारा आनुवांशिक हो गए ( हो जाते हैं )।

ये आनुवांशिक परिवर्त्तन शारीरिक कोषों में होकर शुक्राणुओं या डिम्ब में आ जाते हैं। इस प्रकार एक मानव के शुक्र / डिम्ब का पूर्ण Genetic Mapping यदि शुरू में 18 वर्ष एवं पुनः 60 वर्ष की अवस्था में की जाए तो कुछ लोगों में इसमें अत्यंत सूक्ष्म परिवर्त्तन लक्षित किया जाना चाहिए। आगे सिद्ध हो सकने वाले इस विषय पर मैं और ज्यादा प्रकाश नहीं डाल सकता।

इसलिए ‘तलाश’ चाहती है कि हमारे लोगों को बेहतर एवं पूरा भोजन, बेहतर कपड़े, बेहतर सड़कें, स्वस्थ वातावरण, उच्चतम शिक्षा के अवसर मिलें। लोगों में युगों से संतुष्ट रह जाने की मानसिकता को छोड़कर प्रगति की आंतरिक दुदुर्ष भावना उत्पन्न हो ताकि उपलब्धता एवं बेहतरी की चेतन एवं अवचेतन आकांक्षा द्वारा उन आनुवांशिक गुणों में परिवर्त्तित हो जाए जो हमारे बच्चों को Supersapian के रूप में विकसित कर देंगे।

तो क्यों नहीं हम सबकुछ लुटाकर अपने बच्चों के लिए भविष्य सुरक्षित कर दें और उन्हें सबकुछ उपलब्ध करा दें|

हमारी वर्त्तमान सोच ने हमें स्वर्णयुग से आज की त्रासदपूर्ण सामाजिक परिस्थिति में ढकेल दिया है जहां हम दोयम दर्जे के लोग हो गए हैं। विकासशील हैं और विकासशील ही रह जाएँगे, यदि हमने समय रहते उपाय नहीं किया।

व्यक्ति और समाज के संबंधों की विवेचना का वक्त नहीं है, परंतु समाज यदि जलस्तर है तो व्यक्ति उसकी तरंगों के समान। अतः जलस्तर ऊँचा करना सभी तरंगों की ऊँचांई बढ़ा देता है। निम्न जलस्तर में बहुत ऊँची तरंगे उत्पन्न ही नहीं हो सकती