...परन्तु करना क्या है?

करना क्या है?

एक और व्यक्ति से मिलना है-

फिर कुछ और से-

एक इकाई बनानी है-

पहचान करनी है-

समस्याओं की-

जरूरतों की-

जीवन स्तर के उत्थान में प्रगति के उपायों की।

सबसे आसान को कर डालना है,

निदान ढूँढना है - कार्यान्वित करना है

अगली जरूरत / समस्या का-

सक्रिय रखना है अन्य लोगों को भी।

उदाहरणार्थः-

आपके मुहल्ले में समस्याएँ हैं-

गली में अंधेरा रहता है,

गली में गंदगी फैली है, नाले बहते हैं,

स्कूल में शिक्षक नहीं आते हैं,

स्वास्थ्य उपकेन्द्र पर चिकित्सक नहीं आते हैं,

एक / कुछ व्यक्ति की रंगदारी है-

अन्यान्य।

यदि लोग गली में अंधेरा दूर करने में कुछ भी सहयोग करने को तैयार नहीं है, गंदगी फैलानेवालों को नहीं रोक सकते, तो

कुछ लोग मिलकर मंदिर की सफाई तो कर सकते हैं?

जरूरतमन्द बच्चों को पढ़ा तो सकते हैं?

मिलकर सांस्कृतिक कार्य / कीर्त्तन - भजन तो कर सकते हैं?

फिर आप गली के अंधेरे को दूर कर सकेंगे फिर आप नहीं आनेवाले शिक्षक और चिकित्सक को आने के लिए विनम्र निवेदन कर सकेंगे, और फिर उच्चतर अधिकारियों से मिलकर उनकी उपस्थिति सुनिश्चित कर सकेंगे।

स्कूल एवं अस्पताल के भवन, गलियों का पक्कीकरण के लिए विभिन्न उपायों द्वारा ( सांसद कोटा, विधायक कोटा, विभागीय

कार्य इत्यादि) कर सकेंगे। हर कोई सब कुछ नहीं कर सकेगा कुछ लोग कुछ करेंगे, दूसरे दूसरा करें पहले रंगदारी की धार कम होगी, फिर रंगदारी की वह ऊर्जा भी अच्छे कार्य में लग जाएगी।

सामाजिक उत्थान में तीव्रता आएगी, यह अनवरत प्रक्रिया है।

कुछ भी अच्छा नहीं लगा? कुछ भी करने की हिम्मत नहीं है?

किसी पर भी विश्वास नहीं है?

तो आज (हर रोज) एक रुपया और वाजिब तरीके से कमाने की कोशिश अवश्य प्रारंभ कर दें। फिर अंधेरा स्वयं दूर होने लगेगा।

गलत को गलत कहें !

भारतीय संविधान दुनिया के सबसे वृहत् संविधानों में से एक है । लेकिन समाज कैसे चलता है? इसके अपने रीति - रिवाज हैं। शादियों के नियम, सामाजिक व्यवहार के नियम, लिखे हुए हो सकते हैं परन्तु वे कानून नहीं हैं। सब कुछ कानून के दायरे में नहीं है। हर बात के लिए कानून बनाना संभव नहीं है फिर भी समाज चल रहा है और सुचारु रूप से चल रहा है। ऐसे बहुत से कबीले हैं, या सामाजिक इकाइयाँ हैं, जिनके अपने कानून हैं। ये देश के कानून से अलग भी हो सकते हैं परन्तु युगों से इन रिवाजों का पालन होता आ रहा है। ये अलिखित कानून लोगों को पीढ़ी दर पीढ़ी बहुत ही विस्तृत ढंग से Transmit होते आ रहे हैं। समयानुसार उसमें स्वतः परिवर्त्तन भी होते आ रहे हैं, लोगों को वह परिवर्त्तन स्वीकृत भी हो जाते हैं और अनुपालन भी होने लगता है।

कैसे

परम्पराओं के प्रति व्यक्तिगत प्रतिब(ता कैसे सुनिश्चित होती है?

समाज में आदर्श कैसे स्थापित हुए हैं?

नये आदर्श कैसे स्थापित होते हैं?

ये स्थापित आदर्श समाज को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?

मर्यादा पुरुषोत्तम राम का व्यवहार अनुकरणीय था, आदर्श था, कानून कभी नहीं बना। आज भी उदाहरणीय है - क्यों?

इसमें अनुपालनार्थ कोई न्यायिक प्रक्रिया नहीं है

फिर भी इसका परिपालन कैसे सुनिश्चित है?

सामान्य लोकाचार के प्रति लोग कानूनी व्यवस्था से कहीं ज्यादा आश्वस्त होते हैं, क्यों?

कारण सिर्फ एक हैः-

गलत को लोग गलत कहें, उसकी भर्त्सना करें।

लोग भला क्या कहेंगे? लोगों के कहने मअपार शक्ति है। ‘लोगों का कहना’ अत्यन्त मजबूत बंधन है, नियंत्राण है। हर कदम पर कामयाब है और हर जगह इसकी आवश्यकता है।

यह लोक-लाज, accepted norms कानून से कहीं ज्यादा ताकतवर है जिसका लोग अनुसरण करते हैं।

यदि कार्यालय में कोई घूस ले रहा है और आप तीसरे व्यक्ति होकर टोक देते हैं, तो लड़ाई की नौबत आ जाती है।

गलत कर रहे अधिकारी को टोक दें, आपका काम खराब हो जाएगा।

चिकित्सक अस्पताल में देर से आते हैं, लोग नहीं टोकते हैं।

शिक्षक स्कूलों में नहीं आते हैं, यदि आप उनको सीधे कहेंगे तो पुनः झगड़े की नौबत आएगी।

यह भी प्रश्न होगा कि आप कौन होते हैं ऐसा कहने वाले, इत्यादि-इत्यादि।

गलत को गलत कहना साहस का कार्य है।

विरोध, लड़ाई और विभिन्नप्रकार की परेशानियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।

तलाश के इस विषय के बारे में एक अत्यन्त वरीय, व्यक्ति का मानना था कि गलत को गलत कहना सही तो है परन्तु बहुत कठिन है। दवा तो है परन्तु बहुत कड़वी है।

हाँ, काफी हद तक यह सही है।

परन्तु अच्छे को अच्छा कहने में कोई आग नहीं उत्पन्नहोती है। पिफर भी यह बहुत प्रचलित नहीं है। क्यों कि यह भी साहस का कार्य है।

बेजारी/अनमनयस्कता/जड़ता से अलग-अच्छे को अच्छा कहना भी एक सक्रिय प्रक्रिया है। इसमें भी प्रयास लगता है।

फिर भी आसान है। अत्यन्त वांछनीय है।

उत्प्रेरक है।

दिशा निर्देशक है।

बीज मंत्रा की तरह असरदार है।

जीवन में इस प्रकार के अणु प्रयास- में कोई क्षति नहीं, कोई खर्च नहीं, पिफर भी इसकी अत्यंत कमी है।

गलत को गलत एवं अच्छे को अच्छा कहना सड़क के दो किनारों की भाँति हैं। नदी के दो किनारों की तरह सामाजिक प्रवाह को सुनिश्चित एवं सुव्यवस्थित करती हैं। इन्हें हमें अपने दैनिक जीवन में, सामाजिक जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में अपनाना ही चाहिए।

अच्छा को अच्छा कहें

भारतीय संविधान दुनिया के सबसे वृहत् संविधानों में से एक है । लेकिन समाज कैसे चलता है? इसके अपने रीति - रिवाज हैं। शादियों के नियम, सामाजिक व्यवहार के नियम, लिखे हुए हो सकते हैं परन्तु वे कानून नहीं हैं। सब कुछ कानून के दायरे में नहीं है। हर बात के लिए कानून बनाना संभव नहीं है फिर भी समाज चल रहा है और सुचारु रूप से चल रहा है। ऐसे बहुत से कबीले हैं, या सामाजिक इकाइयाँ हैं, जिनके अपने कानून हैं। ये देश के कानून से अलग भी हो सकते हैं परन्तु युगों से इन रिवाजों का पालन होता आ रहा है। ये अलिखित कानून लोगों को पीढ़ी दर पीढ़ी बहुत ही विस्तृत ढंग से Transmit होते आ रहे हैं। समयानुसार उसमें स्वतः परिवर्त्तन भी होते आ रहे हैं, लोगों को वह परिवर्त्तन स्वीकृत भी हो जाते हैं और अनुपालन भी होने लगता है।

कैसे?

परम्पराओं के प्रति व्यक्तिगत प्रतिब(ता कैसे सुनिश्चित होती है?

समाज में आदर्श कैसे स्थापित हुए हैं?

नये आदर्श कैसे स्थापित होते हैं?

ये स्थापित आदर्श समाज को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?

मर्यादा पुरुषोत्तम राम का व्यवहार अनुकरणीय था, आदर्श था, कानून कभी नहीं बना। आज भी उदाहरणीय है - क्यों?

इसमें अनुपालनार्थ कोई न्यायिक प्रक्रिया नहीं है,

फिर भी इसका परिपालन कैसे सुनिश्चित है?

सामान्य लोकाचार के प्रति लोग कानूनी व्यवस्था से कहीं ज्यादा आश्वस्त होते हैं, क्यों?

कारण सिर्फ एक हैः-

गलत को लोग गलत कहें, उसकी भर्त्सना करें।

लोग भला क्या कहेंगे? लोगों के कहने मअपार शक्ति है। ‘लोगों का कहना’ अत्यन्त मजबूत बंधन है, नियंत्राण है। हर कदम पर कामयाब है और हर जगह इसकी आवश्यकता है।

यह लोक-लाज, accepted norms कानून से कहीं ज्यादा ताकतवर है जिसका लोग अनुसरण करते हैं।

यदि कार्यालय में कोई घूस ले रहा है और आप तीसरे व्यक्ति होकर टोक देते हैं, तो लड़ाई की नौबत आ जाती है।

गलत कर रहे अधिकारी को टोक दें, आपका काम खराब हो जाएगा।

चिकित्सक अस्पताल में देर से आते हैं, लोग नहीं टोकते हैं।

शिक्षक स्कूलों में नहीं आते हैं, यदि आप उनको सीधे कहेंगे तो पुनः झगड़े की नौबत आएगी।

यह भी प्रश्न होगा कि आप कौन होते हैं ऐसा कहने वाले, इत्यादि-इत्यादि।

गलत को गलत कहना साहस का कार्य है।

विरोध, लड़ाई और विभिन्नप्रकार की परेशानियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।

तलाश के इस विषय के बारे में एक अत्यन्त वरीय, व्यक्ति का मानना था कि गलत को गलत कहना सही तो है परन्तु बहुत कठिन है। दवा तो है परन्तु बहुत कड़वी है।

हाँ, काफी हद तक यह सही है।

परन्तु अच्छे को अच्छा कहने में कोई आग नहीं उत्पन्नहोती है। पिफर भी यह बहुत प्रचलित नहीं है। क्यों कि यह भी साहस का कार्य है।

बेजारी/अनमनयस्कता/जड़ता से अलग-अच्छे को अच्छा कहना भी एक सक्रिय प्रक्रिया है। इसमें भी प्रयास लगता है।

फिर भी आसान है। अत्यन्त वांछनीय है।

उत्प्रेरक है।

दिशा निर्देशक है।

बीज मंत्रा की तरह असरदार है।

जीवन में इस प्रकार के अणु प्रयास- में कोई क्षति नहीं, कोई खर्च नहीं, पिफर भी इसकी अत्यंत कमी है।

गलत को गलत एवं अच्छे को अच्छा कहना सड़क के दो किनारों की भाँति हैं। नदी के दो किनारों की तरह सामाजिक प्रवाह को सुनिश्चित एवं सुव्यवस्थित करती हैं। इन्हें हमें अपने दैनिक जीवन में, सामाजिक जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में अपनाना ही चाहिए।

रचनात्मक सामूहिक सोच का निर्माण करें!

समस्याएँ कई हैं –

एक के बाद एक कतार में खड़ी हैं-

नई नई समस्याएँ उत्पन्न होती रहती हैं ।

मैनपुरा सभा एवं तलाश द्वारा की गई जनसभाओ एवं गोश्तिओं में उभरकर आया की सबसे बड़ी समस्या , रंगदारी की है, छोटी बड़ी स्थानीय , बृहतर....। लोगो ने यह समस्या रखी ,हमारे पास हल नहीं (था)|रंगदारी व्यक्तिगत (छोटे समूह )द्वारा बहुत बड़े समूह का अलग-अलग दोहन है, प्रताड़ना है .

सभ में उपस्थित लोगो का विचार आया –

अभी उस समस्या को छोड़े ....गली की सफाई पर ध्यान दें यदि इसमें भी बाधा है तो स्कुल नहीं जा सकनेवाले बच्चो स्त्रियों को तो पढ़ाएं ।

“अपनी समस्याओ की पहचान, उनकी प्राथमिकता टी करना ,अपनी समस्या या साधन की पहचान एवं उसके अनुरूप किसी एक छोटी \ बड़ी समस्या का निदान करें। ’’यह विचार आया।

रंगदारी पर बात करना मुश्किल था, सबो ने इसको दर – किनार कर दिया। इसका हल असंभव मन लिया। एक व्यक्ति ने रोटरी क्लब की स्थापना के सम्बन्ध में बताया की कैसे एक व्यक्ति के माँ में विचार आया की कुछ सामाजिक कार्य किया जाए। फिर सामान विचार वाले चार दोस्त मिले , फिर प्लान बना। लोगो ने हंसी उड़ाई। फिर भी बरी-बरी से लोग मिले (इसलिए रोटरी)-आज इतनी बड़ी अंतरास्ट्रीय संस्था बनी।

मिलना रंगदारी दूर नहीं कर सकता है। किसी समय जब जापान में आराजकता ( रंगदारी )बहुत बढ़ गयी थी , चार ( कुछ ) युवकों ने मिलकर एक संस्था बनायीं – संस्था बढ़ी, संस्था का नारा बना –“पापी हमारे डरसे थर – थर कांपे। सामाजिक जीवन के पुन्स्थार्पण में इसका सराहनीय स्थान रहा।

एक व्यक्ति ने अपने पिछड़े इलाके में एक महाविधालय बन जाने की कहानी बतायी की कैसे कुछ दोस्तों ने गप्प में ये चिन्हित किया की इलाके के पिछड़ेपन का कारण किसी महाविधालय का नही होना है, प्रतिभाशाली छात्र इसके बिना बर्बाद हो रहे हैं|इसे समाज का नहीं राज्य का कार्य कहते हुए कुछ ने असंभव के हद तक कठिन बाताया। चर्चित होने से बात फैली, कुछ लोग आगे आए|सहमती मात्र से, सराहना मात्र से कुछ लोगो ने चंदा उगाहा, उनकी आलोचना हुई, उनपर तोहमत लगे...ज्यादा लोग शामिल हुए, प्रतिष्ठित लोग आए - महाविधालय बना – आज उसमे बारह हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं |इलाके से कई लोग इंजिनियर, डाक्टर, अधिकारी, नौकरीपेशा बने। - मूल मन्त्र “मिले तो सही

मिलें तो सही

बात करने से बात बनती है। बहस करने से बात बिगड़ती है। बात नहीं करने से गलत फहमी पैदा होती है। ध्यान देने योग्य यह है कि बात प्रत्यक्ष होनी चाहिए। अप्रत्यक्ष बातें भी गलत फहमी को पैदा करती है। लोग बहस तो कर लेते हैं लेकिन सीधी बातचीत से कतराते हैं। दूसरों से बातचीत सहज रूप से कर भी लेते हैं लेकिन अपनों से सहज रूप से बातचीत करने से कतराते हैं। क्यों ? - नहीं जानते ! यही कारण है कि आजकल रिश्तों में सहजता नहीं रह गयी है।

निजी स्वार्थों ने रिश्तों में कड़वाहट भर दिया है जिस वजह से लोग अपनों से कतराते हैं, अपनापन का एहसास सिमटता जा रहा है - लोग इस विषम परिस्थिति से निकलना तो चाहते हैं लेकिन असमंजय में हैं, क्या करें, क्या नहीं करें - सीधा सा उपाय, आपस में बात करें।

अपनी - अपनी कहें तो सही, एक - दूसरे को समझें तो सही, आपस मे मिलें तो सही।

आज एक रुपया और कमाएं !

हमारे देश की जनसंख्या आज करीब 120 करोड़ है। यदि हर व्यक्ति प्रतिदिन सिर्फ एक रुपया ( वाजिब तरीके से ) भी और कमाये तो प्रतिदिन इस देश में 120 करोड़ रुपये का कार्य होने लगेगा। यदि एक रुपया प्रतिदिन दस हाथों से गुजर जाए तो वह एक रुपया दस रुपया का काम कर डालेगा।

हमारे प्रदेश के ग्रामीण इलाके में शाम के बाद बिजली गुम हो जाती है। लोगों के पास निष्क्रिय हो जाने, सोने के अलावा कोई विकल्प शायद ही बचता है। अधिकतर युवक ताश खेलने लगते हैं - जो जुआ खेलने में परिवर्तित हो जाता है। अकेलेपन से जूझना शराब पीने में रूपान्तरित हो जाता है। दोस्तों के साथ कुछ करने, चोरियाँ करने अथवा अन्य प्रकार के छोटे-बड़े अपराध कर्मों में परिवर्तित हो जाता है। इससे निर्माण के विपरीत निर्मित भी बिगड़ जाते हैं और यह हमारे मानव संसाधन का भयानक दुरुपयोग है। इसको यदि हम उपार्जन की ओर मोड़ सकें, खासकर ग्रामीण इलाकों में, तो देश - निर्माण की प्रक्रिया तीव्र गति से हो सकेगी। कानून व्यवस्था या आतंकवाद की समस्या पर भी काबू पाया जा सकेगा।

क्या एक रुपया और लोगों की सृजनात्मक शक्ति को नहीं बढ़ाएगा ?

अराजनैतिक क्यों?

राजनीति जीवन का आवश्यक पहलू है।

राजनीति हमारे जीवन को हर दिन लगभग हर जगह प्रभावित करती है।

हर व्यक्ति राजनीति को प्रभावित करता रहता है फिर अराजनैतिक होना कैसे संभव है ?

सक्रिय राजनीति यथार्थ की तरह है - इसका एक स्वरूप है, एक पहचान है - एक प्रक्रिया है। राजनीति सोद्देश्य है। प्रथमतः सत्ता हासिल करना। सत्ता परिवर्त्तन, जनकल्याण का कापफी सीधा एवं सबसे असरदार रास्ता भी है, परन्तु ऐसा हमेशा होता नहीं है।

स्वामी विवेकानन्द का कार्य जन कल्याण का कार्य था, राष्ट्र निर्माण का कार्य था।

राम मोहन राय का कार्य सामाजिक उत्थान का कार्य था।

महात्मा गाँधी का कार्य सामाजिक उत्थान के लिए राजनीति का, शासन तंत्रा के उपयोग का मार्ग था परन्तु स्वयं राजनीति से कोसों दूर थे।

राजनीति में विरोधाभास है, यह रेखाएँ खींचता है। समग्रता संभव नहीं है। प्रलोभन, मजबूरियाँ होती हैं। उद्देश्य भटक सकता है। अराजनीतिक प्रयास में उद्देश्य स्थिर होता है।

अहिंसा?

पदाधिकारी महोदय आप कार्यालय इतनी देर से क्यों आए ?

आप पूछने वाले कौन हैं?

मैं... आम जनता हूँ, प्रजातंत्रा का राजा।

ऐ किशन (Peon) इन्हें बाहर करो ये सरकारी कार्य में हस्तक्षेप कर रहे हैं।

क्रोध Physical Clash

कानूनी कार्यवाही।

थाना, कचहरी, परेशानी।

शक्ति का ” ह्रास, दोनों पक्षों का। और फल? कार्य का नहीं होना, अन्य कार्यों में भी बाधा, आगे कभी भी ऐसे झगड़े पचड़े में न पड़ने की कसम एवं सीख।

हिंसा में संघर्ष सन्निहित है।

संघर्ष में उभय शक्तियों का क्षय भी निश्चित है।

छूटे हुए बाण की तरह अस्त्रा है।

न लौट सकता है न इसका पुनः उपयोग हो सकता है।

विजय किसी एक ही पक्ष की सम्भव है।

अहिंसा में अपनी ऊर्जा का भंडार विशाल होना आवश्यक है। परन्तु उसमें क्षय नहीं होता, संघर्ष नहीं होता।

अहिंसात्मक क्यों?

दोनों पक्षों की विजय होती है।

अत्यंत प्रजातांत्रिक है - उच्चतम मानवीय मूल्यों पर आधारित है। एक शस्त्रा की तरह हमेशा साथ है।

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