हमें अपनी प्रगति से संतुष्ट नहीं होना है !

सूरत बदलनी चाहिए !

ये सूरत बदलनी चाहिए !

हो गई है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए।

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।

आज यह दीवार पर्दो की तरह हिलने लगी,

आज यह दीवार पर्दो की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर शहर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरा कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

-कवि दुष्यंत कुमार की कविता का एक अंश

हमें अपनी प्रगति से संतुष्ट नहीं होना है

चालर्स डारविन ने सृष्टी के अत्यंत गोपनीय सत्य को उद्भासित किया की जीवो का विकास कैसे हुआ। मूल वैज्ञानिक चिंतन तथा घटित घटनाओं की ओरध्यान देंतो कुछ चौपाये अधिक कार्य कुशलता के लिए सिर्फ पिछले दो पैरो का उपयोग का प्रयत्न करने लगें होंगे। बार बार घिरे होंगे। उनका क्रम जरी रहा। दो पैरो वाले मनुष्य बन सके। जो “संतुष्ट” रह गये , आज भी वे सभी चौपाये ही हैं।

संसार में कुछ चौपाये है, कुछ आंशिक रूप से दो पैरो पर चलने वाले चिम्पांजी किस्म के जानवर ओर कुछ आधुनिक मानव। आधुनिक मानव में कुछ ने पहिए उगा लिए, कुछ ने पंख लगा लिए। जो अपनी जगह संतुस्ट रह गये, पीछे रह गये। लोगो ने समूह बनाए, काबिले बनाए, देश बनार। संतुस्ट लोगो को गुलाम बनाया। उन्हें चौपायो की तरह व्यवहत किया। बहुतो को पहाड़ो ओर जंगलो में पहुंचा दिया। उनकी प्रगति रोक दी। उन्हें चौपाया की स्थिति में पहुंचा दिया।

विकसित लोग, विकसित देश लगातार असंतुष्ट रहकर प्रगति कर रहे है। नई - नईतकनीक विकसित कर रहे है। अगर कुछ विकसित लोगो की तकनीक लगातर दुसरो पर भरी होती रही तो कल को हम भी चौपायो की श्रेणी में पहुँचने के लिए बाध्य नहीं हो जायेंगे।

हमरे शास्त्र की मूल भावना “संतोष “परम धन है। शायद हम समझाने में कही भूल कर रहे है क्या? प्रगति के लिए प्रयत्न से संतोष न करे, आलसी न बने। पर प्राप्ति की भावना में संतोष करे की अपने प्रयत्न के बाबजूद हम इससे अधिक पाने के लायक न बन सके |फिर प्रयत्न करेंगे ओर प्रगति के उस ताल तक पहुंचेगे जहाँ विकसित लोग अपने गरूर में हमें चौपाया या आदिमानव की ओर धकेलने का प्रयत्न नहीं करेंगे। प्रगति के प्रयत्न में संतुष्ट नहीं होना है |

लड़ाई

स्वतंत्रता की लड़ाई-

दुश्मन सामने था, आकार था, पहचान थी,

सुभाष और गाँधी आए।

महाभारत की लड़ाई-

दुश्मन सामने थे, सगे भाई-बांधव थे, गुरू, पितामह थे,

कृष्ण को आना पड़ा, अर्जुन को गाण्डीव उठाना पड़ा।

विकास की लड़ाई-

दुश्मन की पहचान भी मुश्किल है, आकारहीन है,

स्वार्थ, भ्रष्टाचार, निष्क्रियता, समाज से बेजारी, आलस्य।

मुश्किल है-

ये सभी दुश्मन हमारे अन्दर ही बैठे हैं,

खुद से लड़ना होगा, आपको आगे होना होगा।

गिरावट में अपनी भागीदारी कम करें-

गिरावट में अपनी भागीदारी कम करें-

सक्रिय प्रयास करें।

दस रुपये मैंने भी चुराये हैं,

हम सुधरेंगे- जग सुधरेगा

बच्चे गुड मत खा।

पहले स्वयं गुड़ खाना छोड़ - उस सत्य या गाँधी की तरह जो कम होते है ,बिरले होते है कभी - कभी ही होते है ।

इन्होने परिवर्तन भी किया है।

क्या सर्व साधारण या बहुत लोग उस संत की तरह हो पाएंगे ?

इस परिवर्तन में कितना समय लगेगा ?

क्या परिवर्तन पुन: उस संत के पैदा होने की प्रतीक्षा करता रहेगा ?

क्या एक गरीब दुसरे गरीब को गरीब कहने का हक़ खो देता है ?

क्या एक चोर दुसरे को चोर नहीं कह सकता ?

क्या कभी (अधिकांश )कहीं न कहीं चोर नहीं है ?

चोर - चोर मौसेरे भाई बनकर ओर बड़ा खोट नहीं पैदा कर रहे है ?

तो?

ठीक है हम भी कही गलत है, परन्तु आप यहाँ गलत हैं, यह न करिये।

पहले अपने गिरेबान में झाकिये।

दुसरे की तरफ एक ऊँगली दिखने पर तीन ऊँगलियाँ अपनी तरफ इंगित करती हैं। (जरुर मुझको भी सुधारनाचाहिए )

ठीक है,मै भी गलती करता हूँ इसका मतलब यह नहीं की आप गलती करें, इसका प्रभाव मुझ पर पड़े ओर मै चुप रहूँ।

मै तो हूँगा भी ओर कुछ करूँगा भी।

मै भी आपको देख लूँगा, मै भी आपके विरुद्ध लगता हूँ ।

मै आपको रोक तो नहीं सकता, अवश्य करिये।

(मुझे भी अपनी कमियां दूर करनी पड़ेगी)

हम सब कम - से- कम एक सीढ़ीउपर तो चढ़ सकेंगे।

सामूहिक सोच का बल

महानिबंधक बिहार के अनुसार सिपर्फ बिहार में करीब 20 हजार स्वयंसेवी संस्थाएँ हैं, जिनमें करीब 2 हजार कार्यरत हैं, एवं उनमें कापफी संस्थाएँ अच्छा कार्य कर रही हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में कितनी संस्थाएँ हुईं?

ये तो संस्थाओं की बातें हैं। व्यक्तिगत स्तर पर हजारों नहीं शायद लाखों व्यक्ति ऐसे हैं जो स्वयं के अलावे ‘पर’ (दूसरों) के लिए कुछ -न - कुछ अच्छा कर रहे हैं।

ऐसी संस्थाएँ एवं लोग इतनी ज्यादा संख्या में युगों से कार्य कर रहे हैं। आज आप सब लोग यहाँ इकट्टे हैं क्योंकि आप सब में कुछ बेहतर करने एवं होने की इच्छा है।

फिर भी अपेक्षित असर नहीं है। क्योंकि हम लोगों का स्वर अलग - अलग स्वर है।

अतः ‘तलाश’ की मूल अवधारणाओं में यह भी एक मूल बात है कि ऐसे सभी लोग, सभी संस्थाएँ मूलभूत तथ्य पर एक स्वर से आवाज दें- तब यह आवाज इतनी बुलंद होगी कि बहरे बने लोग भी सुन लेंगे।

समूह अथवा संघ की ताकत सर्वोपरि है।

परिवर्त्तन के लिए समर्थ है।

परिवर्त्तन के लिए आवश्यक है। इसके बिना यथा-स्थिति बनी रहेगी।

तलाश में कुछ भी अधिकारिता नहीं है, कोई कापी राईट नहीं है, जहां से भी जो भी अच्छा लगता है हर कोई अपनी इच्छा के

अनुसार अच्छा करने के लिए स्वतंत्रा है, आमंत्रित है। कार्य होना चाहिए, बस।

हम कौन थे,क्या हो गये,और क्या होंगे अभी !

हमने सुना है, पढ़ा है,समझा है। हमारे पूर्वज महँ थे। संभवत:इसलिए की आध्यात्मिक, बौधिक, सामाजिक ओर युद्ध क्षेत्र में उनकी बराबरी नहीं थी ।

कहा गया है की उनका एलान था वार्ता से समझ जाओ, मान जाओ तो ठीक है पर यदि शठ की तरह नहीं ही मानने को तैयार हो तो ये धनुष ओर बाण। ये ही तुम्हें समझा देंगे सब कुछ।

आध्यात्मिकता और उसकी प्रगति यह की दो चार लोग जाकर पुरे चीन को बौद्ध बना गए और सम्राट अशोक के पुत्र ने अकेले श्रीलंका को बौद्ध बना दिया।

युद्ध हमारा रक्षा कवच था, किसी को गुलाम बनाने का रास्ता नहीं।

पहले हमने बहदुरी खोई और युद्ध के विरुद्ध राम नाम जपना शुरू किया औरअपमान को प्रभु इच्छा मानकर पीछे खिसकते गए । फिर हमलोग धीरे - धीरे सब कुछ खोत्र गए अपमान के गहरे अँधेरे में आ गए।

अभी कहाँ हैं? पढ़ी हुई एक छोटी सी कहानी सुना दूँ , शायद कुछ स्पस्ट हो सके ;

एक अमीरजादे को चुहल सूझी। उसने एलान क्र दिया, एक चप्पल खाओ, दस रूपये ले जाओ। दस बजे से पांचबजे तक दस चप्पल के लिए सुबह सैट बजे से लाईन लगनी थी। प्रारंभ में कुछ लोग मुँहछुपाकर दस बजे आए। बाद में बहुत लोग आने लगे |फिर मुँह छुपाना क्या? बाद में औरतों ने भी रत के अँधेरे में साथ दिया। मुफ्त मिल रहा है तो लुट खाओ। कितना नेक उच्च विचार है। कितनी सहज संतुष्टि।

क्या हम वही बन रहे है जो अमीरजादे ने चुहल में बता दिया ?क्या आपके पास सोचने का वक्त है की हम कौन थे हम क्या हो गए हैं ? यह ध्यान कर की और क्या आगे होंगे कृपया सही रास्ता लीजिए ।